मेरी हर सोच मे तुम क्यों हो?
मेरी हर साँस मे तुम क्यों हो?
मेरा तुमारा तो कोई रिश्ता भी नही
फ़िर मेरे दिन और रात मे तुम ही क्यों हो?
मैंने तुम्हें चाहा तो क्या हुआ?
मैंने तुम्हें पूजा तो क्या हुआ?
मेरे हर लम्हात पर तुमारा हक़ क्यों है?
मै चाहे हक़ न भी देना चाहू , तो ऐसा क्यों है?
मैंने तो सकूं चाह था तुम्हें चाह कर
मैंने तो तृप्ति चाही थी तुम्हें पाकर
फ़िर मे और बैचैन क्यों हो गई हु तुम्हें चाह कर?
फ़िर मै और प्यासी कैसे हो गई हु तुम्हें पाकर?
मेरी हर सोच मे तुम क्यों हो?
मेरी हर साँस मे तुम क्यों हो?
मेरा तुमारा तो कोई रिश्ता भी नही
फ़िर मेरे दिन और रात मे तुम ही क्यों हो?
मैंने तो जिंदगी को खुशिया देनी चाही थी
मैंने तो ज़ख्मो को मरहम देनी चाही थी
मैंने तो तन्हाई को जलन देनी चाही थी
मैंने तो दुखती रगों को दावा देनी चाही थी
तुम्हें पाकर मे सब पा तो गई हू
चैन-ओ-आराम पाकर भी फ़िर बैचैन क्यों हो गई हू
तुमारे प्यार से तन्हाई को जलाया है मैंने
फ़िर क्यों दवा पाकर भी दुआ की दरकार करती हू॥
मे बे-इन्तहा तुमसे प्यार करती हू
तृप्त सागर की प्यास बुझा तो चुकी हू
फ़िर भी अतृप्त अधूरी सी जिंदगी क्यों हू
तुम बिन अधूरी सी बेवजूद सी क्यों हू॥
मेरी हर सोच मे तुम क्यों हो?
मेरी हर साँस मे तुम क्यों हो?
मेरा तुमारा तो कोई रिश्ता भी नही
फ़िर मेरे दिन और रात मे तुम ही क्यों हो?
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3 comments:
bina rishte ke soch kahan aati hai?ye to bhulaawa hai zindagi ka jahan rishton ki baat ki jaati hai..........
tript hote hue bhi atript rahane ke bhaav sundar shabdon men dhaale hain. god bless u
I loved it!!
"मेरा तुमारा तो कोई रिश्ता भी नही
फ़िर मेरे दिन और रात मे तुम ही क्यों हो?"... कमाल कर दिया आपने, दिल को छू लेने वाली अभिव्यक्ति है।
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